अच्छी पी ली ख़राब पी ली
जैसी पाई शराब पी ली
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गुलों के पर्दे में शक्लें हैं मह-जबीनों की
ये कहाँ से हम गए हैं कहाँ कहें क्या तिरी तग-ओ-ताज़ में
दर खुला सुब्ह को पौ फटते ही मय-ख़ाने का
वो गुल हैं न उन की वो हँसी है
फ़रियाद-ए-जुनूँ और है बुलबुल की फ़ुग़ाँ और
दर्द हो तो दवा करे कोई
उफ़ रे उभार उफ़ रे ज़माना उठान का
बात दिल की ज़बान पर आई
आगे कुछ बढ़ कर मिलेगी मस्जिद-ए-जामे 'रियाज़'
कहती है ऐ 'रियाज़' दराज़ी ये रीश की
दिल-जलों से दिल-लगी अच्छी नहीं
लुट गई शब को दो शय जिस को छुपाते थे बहुत