कहती है ऐ 'रियाज़' दराज़ी ये रीश की
टट्टी की आड़ में है मज़ा कुछ शिकार का
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मुझ को लेना है तिरे रंग-ए-हिना का बोसा
गुलों के पर्दे में शक्लें हैं मह-जबीनों की
सुना है 'रियाज़' अपनी दाढ़ी बढ़ा कर
थका ले और दौर-ए-आसमाँ तक
अक्स पर यूँ आँख डाली जाएगी
वो पूछते हैं शौक़ तुझे है विसाल का
ऐसी ही इंतिज़ार में लज़्ज़त अगर न हो
बच जाए जवानी में जो दुनिया की हवा से
ये कोई बात है सुनता न बाग़बाँ मेरी
क्या शराब-ए-नाब न पस्ती से पाया है उरूज
दर्द हो तो दवा करे कोई
ज़ेर-ए-मस्जिद मय-कदा में मय-कदे में मस्त-ए-ख़्वाब