सुना है 'रियाज़' अपनी दाढ़ी बढ़ा कर
बुढ़ापे में अल्लाह वाले हुए हैं
Wasi Shah
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Javed Akhtar
Allama Iqbal
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Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
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ये सीधे जो अब ज़ुल्फ़ों वाले हुए हैं
मुफ़लिसों की ज़िंदगी का ज़िक्र क्या
इस वास्ते कि आव-भगत मय-कदे में हो
मुझ को न दिल पसंद न दिल की ये ख़ू पसंद
मेरे पहलू में हमेशा रही सूरत अच्छी
दिल ढूँढती है निगह किसी की
रंग लाएगा दीदा-ए-पुर-आब
हंस के पैमाना दिया ज़ालिम ने तरसाने के बा'द
डर है न दुपट्टा कहीं सीने से सरक जाए
जिस दिन से हराम हो गई है
मेहंदी लगाए बैठे हैं कुछ इस अदा से वो
मर कर अरे वाइज़ कोई ज़िंदा नहीं होता