जिस दिन से हराम हो गई है
मय ख़ुल्द-मक़ाम हो गई है
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मुफ़लिसों की ज़िंदगी का ज़िक्र क्या
देखिएगा सँभल कर आईना
ग़रीब हम हैं ग़रीबों की भी ख़ुशी हो जाए
थी ज़र्फ़-ए-वज़ू में कोई शय पी गए क्या आप
दर खुला सुब्ह को पौ फटते ही मय-ख़ाने का
ज़र्फ़-ए-वज़ू है जाम है इक ख़म है इक सुबू
किसी से वस्ल में सुनते ही जान सूख गई
नहीं छुपता तिरे इ'ताब का रंग
कोई मुँह चूम लेगा इस नहीं पर
आलम-ए-हू में कुछ आवाज़ सी आ जाती है
सुब्ह है रात कहाँ अब वो कहाँ रात की बात
छुपता नहीं छपाने से आलम उभार का