बहार आते ही फूलों ने छावनी छाई
कि ढूँढता हूँ मुझे आशियाँ नहीं मिलता
Mir Taqi Mir
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मर गया हूँ पे तअ'ल्लुक़ है ये मय-ख़ाने से
पीरी में 'रियाज़' अब भी जवानी के मज़े हैं
दिल-जलों से दिल-लगी अच्छी नहीं
किस किस तरह बुलाए गए मय-कदे में आज
वो गुल हैं न उन की वो हँसी है
आलम-ए-हू में कुछ आवाज़ सी आ जाती है
परा बाँधे सफ़-ए-मिज़्गाँ खड़ी है
ऐसी ही इंतिज़ार में लज़्ज़त अगर न हो
छुपता नहीं छपाने से आलम उभार का
ये क़ैस-ओ-कोहकन के से फ़साने बन गए कितने
ये कहाँ से हम गए हैं कहाँ कहें क्या तिरी तग-ओ-ताज़ में
मैं उठा रक्खूँ न कुछ इन के लिए