किस किस तरह बुलाए गए मय-कदे में आज
पहुँचे बना के शक्ल जो हम रोज़ा-दार की
Gulzar
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
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Anwar Masood
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ज़रा जो हम ने उन्हें आज मेहरबाँ देखा
मुझ को लेना है तिरे रंग-ए-हिना का बोसा
लब-ए-मय-गूँ का तक़ाज़ा है कि जीना होगा
वो गुल हैं न उन की वो हँसी है
तेज़ है पीने में हो जाएगी आसानी मुझे
बाला-ए-बाम ग़ैर है में आस्तान पर
जो पिलाए वो रहे यारब मय-ओ-साग़र से ख़ुश
ऐसी ही इंतिज़ार में लज़्ज़त अगर न हो
मेरे पहलू में हमेशा रही सूरत अच्छी
उफ़ रे उभार उफ़ रे ज़माना उठान का
ज़ेर-ए-मस्जिद मय-कदा में मय-कदे में मस्त-ए-ख़्वाब
वस्ल की रात के सिवा कोई शाम