लब-ए-मय-गूँ का तक़ाज़ा है कि जीना होगा
आँख कहती है तुझे ज़हर भी पीना होगा
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जवानी मय-ए-अरग़वानी से अच्छी
हम जानते हैं लुत्फ़-ए-तक़ाज़ा-ए-मय-फ़रोश
मेहंदी लगाए बैठे हैं कुछ इस अदा से वो
ग़लत है आप न थे हम-कलाम ख़ल्वत में
आफ़त हमारी जान को है बे-क़रार दिल
ये सर-ब-मोहर बोतलें हैं जो शराब की
मुँह ज़ेर-ए-ताक खोला वाइज़ बहुत ही चूका
मुझ को न दिल पसंद न दिल की ये ख़ू पसंद
कहना किसी का सुब्ह-ए-शब-ए-वस्ल नाज़ से
मर कर अरे वाइज़ कोई ज़िंदा नहीं होता
मुझ को लेना है तिरे रंग-ए-हिना का बोसा
पाऊँ तो उन हसीनों के मुँह चूम लूँ 'रियाज़'