हम जानते हैं लुत्फ़-ए-तक़ाज़ा-ए-मय-फ़रोश
वो नक़्द में कहाँ जो मज़ा है उधार में
Mohsin Naqvi
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Allama Iqbal
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Habib Jalib
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कुछ भी हो 'रियाज़' आँख में आँसू नहीं आते
मर गया हूँ पे तअ'ल्लुक़ है ये मय-ख़ाने से
न तारे अफ़्शाँ न कहकशाँ है नमूना हँसती हुई जबीं का
बहार आते ही फूलों ने छावनी छाई
वो गुल हैं न उन की वो हँसी है
इस हज में वो बुत भी साथ होगा
ये कोई बात है सुनता न बाग़बाँ मेरी
मुँह दिखा कर मुँह छुपाना कुछ नहीं
पर्दे पर्दे में ये कर लेती हैं राहें क्यूँकर
हम जाम-ए-मय के भी लब तर चूसते नहीं
वो कौन है दुनिया में जिसे ग़म नहीं होता
वा'दा था जिस का हश्र में वो बात भी तो हो