कुछ भी हो 'रियाज़' आँख में आँसू नहीं आते
मुझ को तो किसी बात का अब ग़म नहीं होता
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धोके से पिला दी थी उसे भी कोई दो घूँट
बाम पर आए कितनी शान से आज
रहे हम आशियाँ में भी तो बर्क़-ए-आशियाँ हो कर
परा बाँधे सफ़-ए-मिज़्गाँ खड़ी है
एक वाइज़ है कि जिस की दावतों की धूम है
हम बंद किए आँख तसव्वुर में पड़े हैं
छुपता नहीं छपाने से आलम उभार का
लुट गई शब को दो शय जिस को छुपाते थे बहुत
दिल-जलों से दिल-लगी अच्छी नहीं
उठवाओ मेज़ से मय-ओ-साग़र 'रियाज़' जल्द
दर्द हो तो दवा करे कोई
आलम-ए-हू में कुछ आवाज़ सी आ जाती है