'रियाज़' एहसास-ए-ख़ुद्दारी पे कितनी चोट लगती है
किसी के पास जब जाता है कोई मुद्दआ' ले कर
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क़ुलक़ुल-ए-मीना सदा नाक़ूस की शोर-ए-अज़ाँ
ये क़ैस-ओ-कोहकन के से फ़साने बन गए कितने
ख़्वाब में भी नज़र आ जाए जो घर की सूरत
है भी कुछ या नहीं मैं हाथ लगा कर देखूँ
वस्ल की रात के सिवा कोई शाम
अब मुजरिमान-ए-इश्क़ से बाक़ी हूँ एक मैं
रहे हम आशियाँ में भी तो बर्क़-ए-आशियाँ हो कर
ये सर-ब-मोहर बोतलें हैं जो शराब की
दुनिया से अलग हम ने मयख़ाने का दर देखा
दर्द हो तो दवा करे कोई
आबाद करें बादा-कश अल्लाह का घर आज
ख़ुदा आबाद रक्खे मय-कदे को