आबाद करें बादा-कश अल्लाह का घर आज
दन जुमअ' का है बंद है मय-ख़ाने का दर आज
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मेरी सज-धज तो कोई इश्क़-ए-बुताँ में देखे
जी उठे हश्र में फिर जी से गुज़रने वाले
नज़र आती है दूर की सूरत
शेर-ए-तर मेरे छलकते हुए साग़र हैं 'रियाज़'
उठता है एक पाँव तो थमता है एक पाँव
सय्याद तिरा घर मुझे जन्नत सही मगर
कोई मुँह चूम लेगा इस नहीं पर
नहीं छुपता तिरे इ'ताब का रंग
बच जाए जवानी में जो दुनिया की हवा से
कहती है ऐ 'रियाज़' दराज़ी ये रीश की
हम भी पिएँ तुम्हें भी पिलाएँ तमाम रात
सितम-ए-ना-रवा को रोते हैं