उठता है एक पाँव तो थमता है एक पाँव
नक़्श-ए-क़दम की तरह कहाँ घर बनाएँ हम
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बहुत ही पर्दे में इज़हार-ए-आरज़ू करते
रूठे हुए कि अपने ज़रा अब मनाए ज़ुल्फ़
अच्छी पी ली ख़राब पी ली
क़द्र मुझ रिंद की तुझ को नहीं ऐ पीर-ए-मुग़ाँ
कहना किसी का सुब्ह-ए-शब-ए-वस्ल नाज़ से
मुझ को न दिल पसंद न दिल की ये ख़ू पसंद
उन के होते कौन देखे दीदा-ओ-दिल का बिगाड़
गुल मुरक़्क़ा' हैं तिरे चाक गरेबानों के
कहाँ ये बात हासिल है तिरी मस्जिद को ऐ ज़ाहिद
उफ़ रे उभार उफ़ रे ज़माना उठान का
उतरी है आसमाँ से जो कल उठा तो ला
न आया हमें इश्क़ करना न आया