शामियाना Poetry (page 2)

सफ़र से किस को मफ़र है लेकिन ये क्या कि बस रेग-ज़ार आएँ

राशिद जमाल फ़ारूक़ी

तीर जैसे कमान के आगे

रसा चुग़ताई

अब जो देखा तो दास्तान से दूर

रसा चुग़ताई

नक़ाब चेहरे से उस के कभी सरकता था

इरफ़ान अहमद

अगर है रेत की दीवार ध्यान टूटेगा

इम्तियाज़ अहमद राही

सहरा में एक शाम

इफ़्तिख़ार आरिफ़

इस शहर-ए-ख़ुफ़्तगाँ में कोई तो अज़ान दे

हिमायत अली शाएर

हैरान सारा शहर था जिस की उड़ान पर

हज़ीं लुधियानवी

ग़ज़ल में हुस्न का उस के बयान रखना है

हसन अकबर कमाल

ज़मीं सरकती है फिर साएबान टूटता है

हसन अब्बास रज़ा

तीर जैसे कमान से निकला

ग़नी एजाज़

लफ़्ज़ों का साएबान बना लेने दीजिए

फ़ुज़ैल जाफ़री

न में यक़ीन में रख्खूँ न तो गुमान में रख

फ़िरदौस गयावी

पाबंदियों से अपनी निकलते वो पा न थे

बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन

मो'तबर से रिश्तों का साएबान रहने दो

अज़रा नक़वी

ख़ाक ओ ख़ला का हिसार और मैं

अज़ीज अहमद ख़ाँ शफ़क़

क़ज़ा का तीर था कोई कमान से निकल गया

अज़हर अदीब

दर टूटने लगे कभी दीवार गिर पड़े

अज़हर अदीब

अगर यक़ीन न रखते गुमान तो रखते

अतहर नासिक

इक लफ़्ज़ आ गया था जो मेरी ज़बान पर

अरशद कमाल

बराए-नाम सही कोई मेहरबान तो है

अक़ील शादाब

इक परिंदा अभी उड़ान में है

अमीर क़ज़लबाश

अदम से परे

ऐन ताबिश

ख़याल वो भी मिरे ज़ेहन के मकान में था

अहसन इमाम अहसन

वो इक सवाल-ए-सितारा कि आसमान में था

अहमद महफ़ूज़

अन-पढ़ गूँगे का रजज़

अहमद जावेद

होने को यूँ तो शहर में अपना मकान था

आदिल मंसूरी

ख़ला के जैसा कोई दरमियान भी पड़ता

अभिषेक शुक्ला

अपने वहम-ओ-गुमान से निकला

अब्दुल मतीन नियाज़

जब कोई मेहरबान होता है

अब्दुल मजीद ख़ाँ मजीद

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