तीर Poetry (page 14)

अक्स उभरा न था आईना-ए-दिल-दारी का

एजाज़ गुल

दिल-ए-बर्बाद को छोटा सा मकाँ भी देगा

एहतिशाम अख्तर

आँख में ख़्वाब ज़माने से अलग रक्खा है

दिलावर अली आज़र

किसी क़लम से किसी की ज़बाँ से चलता हूँ

धीरेंद्र सिंह फ़य्याज़

राज़-ए-निहाँ थी ज़िंदगी राज़-ए-निहाँ है आज भी

दर्शन सिंह

वो ज़माना नज़र नहीं आता

दाग़ देहलवी

पुकारती है ख़मोशी मिरी फ़ुग़ाँ की तरह

दाग़ देहलवी

मुझे ऐ अहल-ए-काबा याद क्या मय-ख़ाना आता है

दाग़ देहलवी

खुलता नहीं है राज़ हमारे बयान से

दाग़ देहलवी

हाथ निकले अपने दोनों काम के

दाग़ देहलवी

दिल चुरा कर नज़र चुराई है

दाग़ देहलवी

भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं

दाग़ देहलवी

बाब-ए-रहमत पे दुआ गिर्या-कुनाँ हो जैसे

दाएम ग़व्वासी

दिल के ज़ख़्मों की चुभन दीदा-ए-तर से पूछो

बुशरा हाश्मी

जब ख़िज़ाँ आई चमन में सब दग़ा देने लगे

बूम मेरठी

ये बुत फिर अब के बहुत सर उठा के बैठे हैं

बिस्मिल अज़ीमाबादी

शाम से हम ता सहर चलते रहे

बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन

देता था जो साया वो शजर काट रहा है

बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन

ग़ज़ब है सुर्मा दे कर आज वो बाहर निकलते हैं

भारतेंदु हरिश्चंद्र

दिल मिरा तीर-ए-सितम-गर का निशाना हो गया

भारतेंदु हरिश्चंद्र

मैं ने सोचा था मुझे मिस्मार कर सकता नहीं

भारत भूषण पन्त

लड़ गई उन से नज़र खिंच गए अबरू उन के

बेताब अज़ीमाबादी

अक़्ल दौड़ाई बहुत कुछ तो गुमाँ तक पहुँचे

बेताब अज़ीमाबादी

न क्यूँ-कर नज़्र दिल होता न क्यूँ-कर दम मिरा जाता

बेख़ुद देहलवी

हज़रत-ए-दिल ये इश्क़ है दर्द से कसमसाए क्यूँ

बेख़ुद देहलवी

बेवफ़ा कहने से क्या वो बेवफ़ा हो जाएगा

बेख़ुद देहलवी

अब इस से क्या तुम्हें था या उमीद-वार न था

बेख़ुद देहलवी

हम चटानों की तरह साहिल पे ढाले जाएँगे

बेकल उत्साही

दिमाग़ अर्श पे है ख़ुद ज़मीं पे चलते हैं

बेकल उत्साही

भीतर बसने वाला ख़ुद बाहर की सैर करे मौला ख़ैर करे

बेकल उत्साही

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