बिहार Poetry (page 28)

है किस क़दर हलाक-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा-ए-गुल

ग़ालिब

गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जा का

ग़ालिब

दिल मिरा सोज़-ए-निहाँ से बे-मुहाबा जल गया

ग़ालिब

धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव

ग़ालिब

बर्शिकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए

ग़ालिब

अज़-मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना

ग़ालिब

आमद-ए-सैलाब-ए-तूफ़ान-ए-सदा-ए-आब है

ग़ालिब

आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त

ग़ालिब

आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे

ग़ालिब

आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं

ग़ालिब

आ कि मिरी जान को क़रार नहीं है

ग़ालिब

कि इस से पहले ख़िज़ाँ का शिकार हो जाऊँ

गौतम राजऋषि

रह-ए-इश्क़ में ग़म-ए-ज़िंदगी की भी ज़िंदगी सफ़री रही

गणेश बिहारी तर्ज़

जिस्म तो मिट्टी में मिलता है यहीं मरने के बाद

गणेश बिहारी तर्ज़

तुझे किस तरह छुड़ाऊँ ख़लिश-ए-ग़म-ए-निहाँ से

फ़िज़ा जालंधरी

फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन

फ़िराक़ गोरखपुरी

शाम-ए-अयादत

फ़िराक़ गोरखपुरी

परछाइयाँ

फ़िराक़ गोरखपुरी

ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़

फ़िराक़ गोरखपुरी

शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो

फ़िराक़ गोरखपुरी

नर्म फ़ज़ा की करवटें दिल को दुखा के रह गईं

फ़िराक़ गोरखपुरी

लुत्फ़-सामाँ इताब-ए-यार भी है

फ़िराक़ गोरखपुरी

कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में

फ़िराक़ गोरखपुरी

बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की

फ़िराक़ गोरखपुरी

फूलों को गुलिस्ताँ में कब रास बहार आई

फ़िगार उन्नावी

लब पे झूटे तराने होते हैं

फ़िगार उन्नावी

किसी अपने से होती है न बेगाने से होती है

फ़िगार उन्नावी

जुरअत-ए-इश्क़ हवस-कार हुई जाती है

फ़िगार उन्नावी

जफ़ा-ए-यार को हम लुत्फ़-ए-यार कहते हैं

फ़िगार उन्नावी

हस्ती इक नक़्श-ए-इनइकासी है

फ़िगार उन्नावी

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