दीपक Poetry (page 1)

हासिल किसी से नक़्द-ए-हिमायत न कर सका

ग़ुलाम हुसैन साजिद

सर पर किसी ग़रीब के नाचार गिर पड़े

ग़ुलाम हुसैन साजिद

ज़मीन मेरी रहेगी न आइना मेरा

ग़ुलाम हुसैन साजिद

इक्कीसवीं सदी का इश्क़

मर्यम तस्लीम कियानी

लापता

मुबश्शिर अली ज़ैदी

शहर की गलियाँ चराग़ों से भर गईं

जवाज़ जाफ़री

बला-ए-तीरा-शबी का जवाब ले आए

अख़्तर सईद ख़ान

कोई चराग़ न जुगनू सफ़र में रक्खा गया

वफ़ा नक़वी

दिल से अरमाँ निकल रहे हैं

अख़्तर सईद

टीपू-सुल्तान

इज्तिबा रिज़वी

फ़ुग़ाँ के साथ तिरे राहत-ए-क़रार चले

मिरी ख़ाक में विला का न कोई शरार होता

ज़ुल्फ़िकार नक़वी

गुम-कर्दा-राह ख़ाक-बसर हूँ ज़रा ठहर

ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी

तेवर भी देख लीजिए पहले घटाओं के

ज़ुहूर-उल-इस्लाम जावेद

तेरा अंदाज़-ए-सुख़न सब से जुदा लगता है

ज़ुहूर-उल-इस्लाम जावेद

हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते

ज़ुहूर नज़र

हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते

ज़ुहूर नज़र

चारों तरफ़ हैं ख़ार-ओ-ख़स दश्त में घर है बाग़ सा

ज़ुबैर शिफ़ाई

अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

न थीं तो दूर कहीं ध्यान में पड़ी हुई थीं

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

मिरी आँखों में जो थोड़ी सी नमी रह गई है

ज़िया फ़ारूक़ी

इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं

ज़ेहरा निगाह

ये हुक्म है कि अँधेरे को रौशनी समझो

ज़ेहरा निगाह

तिरा ख़याल फ़रोज़ाँ है देखिए क्या हो

ज़ेहरा निगाह

इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं

ज़ेहरा निगाह

एक लड़की ने आईना देखा

ज़ीशान साहिल

फैली हुई है सारी दिशाओं में रौशनी

ज़ीशान साजिद

क्या मिला क़ैस को गर्द-ए-रह-ए-सहरा हो कर

ज़ेबा

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