हश्र Poetry (page 6)

ताख़ीर आ पड़ी जो बदन के ज़ुहूर में

रियाज़ लतीफ़

ये सुन के आज हश्र में वो बात भी तो हो

रियाज़ ख़ैराबादी

ये सीधे जो अब ज़ुल्फ़ों वाले हुए हैं

रियाज़ ख़ैराबादी

ये कोई बात है सुनता न बाग़बाँ मेरी

रियाज़ ख़ैराबादी

ये कहाँ से हम गए हैं कहाँ कहें क्या तिरी तग-ओ-ताज़ में

रियाज़ ख़ैराबादी

ये बला मेरे सर चढ़ी ही नहीं

रियाज़ ख़ैराबादी

वो हों मुट्ठी में उन की दिल हो हम हों

रियाज़ ख़ैराबादी

वा'दा था जिस का हश्र में वो बात भी तो हो

रियाज़ ख़ैराबादी

रंग पर कल था अभी लाला-ए-गुलशन कैसा

रियाज़ ख़ैराबादी

पाया जो तुझे तो खो गए हम

रियाज़ ख़ैराबादी

पैमाने में वो ज़हर नहीं घोल रहे थे

रियाज़ ख़ैराबादी

नज़र आती है दूर की सूरत

रियाज़ ख़ैराबादी

मर कर अरे वाइज़ कोई ज़िंदा नहीं होता

रियाज़ ख़ैराबादी

मय रहे मीना रहे गर्दिश में पैमाना रहे

रियाज़ ख़ैराबादी

कल क़यामत है क़यामत के सिवा क्या होगा

रियाज़ ख़ैराबादी

जी उठे हश्र में फिर जी से गुज़रने वाले

रियाज़ ख़ैराबादी

जाने वाले न हम उस कूचे में आने वाले

रियाज़ ख़ैराबादी

गुल मुरक़्क़ा' हैं तिरे चाक गरेबानों के

रियाज़ ख़ैराबादी

दुनिया से अलग हम ने मयख़ाने का दर देखा

रियाज़ ख़ैराबादी

दिल-जलों से दिल-लगी अच्छी नहीं

रियाज़ ख़ैराबादी

दर खुला सुब्ह को पौ फटते ही मय-ख़ाने का

रियाज़ ख़ैराबादी

अगर उन के लब पर गिला है किसी का

रियाज़ ख़ैराबादी

आरज़ू भी तो कर नहीं आती

रियाज़ ख़ैराबादी

आप आए तो ख़याल-ए-दिल-ए-नाशाद आया

रियाज़ ख़ैराबादी

मय-कश हूँ वो कि पूछता हूँ उठ के हश्र में

रिन्द लखनवी

यार आया है अहवाल-ए-दिल-ए-ज़ार दिखाओ

रिन्द लखनवी

मकान-ए-दिल से जो उठता था वो धुआँ भी गया

रियाज़ मजीद

बिछड़ते वक़्त की उस एक बद-गुमानी में

रेनू नय्यर

तुम अँधियारों की बात करो

रेहान अल्वी

ख़्वाबों की इक भीड़ लगी है जिस्म बेचारा नींद में है

राज़ी अख्तर शौक़

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