मय-कश हूँ वो कि पूछता हूँ उठ के हश्र में
क्यूँ जी शराब की हैं दुकानें यहाँ कहीं
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ऐ शब-ए-फ़ुर्क़त न कर मुझ पर अज़ाब
क्या मिला अर्ज़-ए-मुद्दआ कर के
लैला मजनूँ का रटती है नाम
दिल किस से लगाऊँ कहीं दिलबर नहीं मिलता
अल्लाह के भी घर से है कू-ए-बुताँ अज़ीज़
ख़ामोश दाब-ए-इश्क़ को बुलबुल लिए हुए
छुप के घर ग़ैर के जाया न करो
न अंगिया न कुर्ती है जानी तुम्हारी
ऐ जुनूँ तू ही छुड़ाए तो छुटूँ इस क़ैद से
बस अब आप तशरीफ़ ले जाइए
इमसाल फ़स्ल-ए-गुल में वो फिर चाक हो गए