इमसाल फ़स्ल-ए-गुल में वो फिर चाक हो गए
अगले बरस के थे जो गरेबाँ सिए हुए
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मुँह न ढाँको अब तो सूरत देख ली
अपने मरने का अगर रंज मुझे है तो ये है
दिल-लगी ग़ैरों से बे-जा है मिरी जाँ छोड़ दे
ज़ुल्फ़ें छोड़ीं हैं कि जोड़ा उस ने छोड़ा साँप का
नीस्त बे-यार मुझ को हस्ती है
रक्खो ख़िदमत में मुझ से काम तो लो
मय पिला ऐसी कि साक़ी न रहे होश मुझे
तबीअ'त को होगा क़लक़ चंद रोज़
रिंदान-ए-इश्क़ छुट गए मज़हब की क़ैद से
खुली है कुंज-ए-क़फ़स में मिरी ज़बाँ सय्याद
ज़ुल्फ़ों की तरह उम्र बसर हो गई अपनी
आलम-पसंद हो गई जो बात तुम ने की