तबीअ'त को होगा क़लक़ चंद रोज़
ठहरते ठहरते ठहर जाएगी
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लैला मजनूँ का रटती है नाम
इमसाल फ़स्ल-ए-गुल में वो फिर चाक हो गए
दिल-लगी ग़ैरों से बे-जा है मिरी जाँ छोड़ दे
फिर वही कुंज-ए-क़फ़स है वही सय्याद का घर
ज़ुल्फ़ें छोड़ीं हैं कि जोड़ा उस ने छोड़ा साँप का
दीद-ए-लैला के लिए दीदा-ए-मजनूँ है ज़रूर
पाँव के हाथ से गर्दिश ही रही मुझ को मुदाम
अपने मरने का अगर रंज मुझे है तो ये है
रास्ता रोक के कह लूँगा जो कहना है मुझे
मौत आ जाए क़ैद में सय्याद
शौक़-ए-नज़्ज़ारा-ए-दीदार में तेरे हमदम