फिर वही कुंज-ए-क़फ़स है वही सय्याद का घर
चार दिन और हवा बाग़ की खा ले बुलबुल
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ऐ शब-ए-फ़ुर्क़त न कर मुझ पर अज़ाब
फेर लाता है ख़त-ए-शौक़ मिरा हो के तबाह
हम जो कहते हैं सरासर है ग़लत
दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी
दिल-लगी ग़ैरों से बे-जा है मिरी जाँ छोड़ दे
इश्क़ कुछ आप पे मौक़ूफ़ नहीं ख़ुश रहिए
नाज़-ए-बेजा उठाइए किस से
सातों फ़लक किए तह-ओ-बाला निकल गया
नीस्त बे-यार मुझ को हस्ती है
हों वो काफ़िर कि मुसलामानों ने अक्सर मुझ को
मौत आ जाए क़ैद में सय्याद