नाज़-ए-बेजा उठाइए किस से
अब न वो दिल न वो दिमाग़ रहा
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बरहना देख कर आशिक़ में जान-ए-ताज़ा आती है
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
हम जो कहते हैं सरासर है ग़लत
फेर लाता है ख़त-ए-शौक़ मिरा हो के तबाह
मय पिला ऐसी कि साक़ी न रहे होश मुझे
फिर वही कुंज-ए-क़फ़स है वही सय्याद का घर
मुझ बला-नोश को तलछट भी है काफ़ी साक़ी
आफ़त शब-ए-तन्हाई की टल जाए तो अच्छा
दिल-लगी ग़ैरों से बे-जा है मिरी जाँ छोड़ दे
हैं ये सारे जीते-जी के वास्ते
तू आप को पोशीदा ओ इख़्फ़ा न समझना
साइलाना उन के दर पर जब मिरा जाना हुआ