फेर लाता है ख़त-ए-शौक़ मिरा हो के तबाह
ज़ब्ह कर डालूँगा अब की जो कबूतर बहका
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मौत आ जाए क़ैद में सय्याद
काफ़िर हूँ न फूँकूँ जो तिरे काबे में ऐ शैख़
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
बुत करें आरज़ू ख़ुदाई की
लैला मजनूँ का रटती है नाम
नाज़-ए-बेजा उठाइए किस से
टूटे बुत मस्जिद बनी मिस्मार बुत-ख़ाना हुआ
दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी
आँख से क़त्ल करे लब से जलाए मुर्दे
हूर पर आँख न डाले कभी शैदा तेरा
गले लगाएँ बलाएँ लें तुम को प्यार करें
साइलाना उन के दर पर जब मिरा जाना हुआ