बुत करें आरज़ू ख़ुदाई की
शान है तेरी किबरियाई की
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पास-ए-दीं कुफ़्र में भी था मलहूज़
चलती रही उस कूचे में तलवार हमेशा
फिर वही कुंज-ए-क़फ़स है वही सय्याद का घर
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
काबे को जाता किस लिए हिन्दोस्तान से मैं
क्यूँ-कर न लाए रंग गुलिस्ताँ नए नए
हम जो कहते हैं सरासर है ग़लत
ख़ामोश दाब-ए-इश्क़ को बुलबुल लिए हुए
मय-कश हूँ वो कि पूछता हूँ उठ के हश्र में
छुप के घर ग़ैर के जाया न करो
ऐ जुनूँ तू ही छुड़ाए तो छुटूँ इस क़ैद से