चाँदनी रातों में चिल्लाता फिरा
चाँद सी जिस ने वो सूरत देख ली
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पाँव के हाथ से गर्दिश ही रही मुझ को मुदाम
रक्खो ख़िदमत में मुझ से काम तो लो
क्या सुन चुके हैं आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार हाथ
काफ़िर हूँ न फूँकूँ जो तिरे काबे में ऐ शैख़
परों को खोल दे ज़ालिम जो बंद करता है
मज़ा पड़ा है क़नाअत का अहद-ए-तिफ़्ली से
लैला मजनूँ का रटती है नाम
हिज्र की शब हाथ में ले कर चराग़-ए-माहताब
फेर लाता है ख़त-ए-शौक़ मिरा हो के तबाह
चलती रही उस कूचे में तलवार हमेशा
दीद-ए-लैला के लिए दीदा-ए-मजनूँ है ज़रूर
रास्ता रोक के कह लूँगा जो कहना है मुझे