क्या सुन चुके हैं आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार हाथ
जाते हैं सू-ए-जेब जो बे-इख़्तियार हाथ
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मय-कश हूँ वो कि पूछता हूँ उठ के हश्र में
आलम-पसंद हो गई जो बात तुम ने की
दिल किस से लगाऊँ कहीं दिलबर नहीं मिलता
दिल-लगी ग़ैरों से बे-जा है मिरी जाँ छोड़ दे
आदमी पहचाना जाता है क़याफ़ा देख कर
हैरान सी है भचक रही है
रक्खो ख़िदमत में मुझ से काम तो लो
दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी
मुझ बला-नोश को तलछट भी है काफ़ी साक़ी
क्या मिला अर्ज़-ए-मुद्दआ कर के
मज़ा पड़ा है क़नाअत का अहद-ए-तिफ़्ली से
ज़माने में वो मह-लक़ा एक है