क्या मिला अर्ज़-ए-मुद्दआ कर के
बात भी खोई इल्तिजा कर के
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अदू ग़ैर ने तुझ को दिलबर बनाया
लाएगी गर्दिश में तुझ को भी मिरी आवारगी
हम जो कहते हैं सरासर है ग़लत
बस अब आप तशरीफ़ ले जाइए
चढ़ी तेरे बीमार-ए-फ़ुर्क़त को तब है
ज़माने में वो मह-लक़ा एक है
मय-कश हूँ वो कि पूछता हूँ उठ के हश्र में
हूर पर आँख न डाले कभी शैदा तेरा
यार आया है अहवाल-ए-दिल-ए-ज़ार दिखाओ
क्यूँ-कर न लाए रंग गुलिस्ताँ नए नए
किसी का कोई मर जाए हमारे घर में मातम है
था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी