था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी
या सनम कह कर पढ़ा मकतब में बिस्मिल्लाह को
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बस अब आप तशरीफ़ ले जाइए
खुली है कुंज-ए-क़फ़स में मिरी ज़बाँ सय्याद
ऐ शब-ए-फ़ुर्क़त न कर मुझ पर अज़ाब
इमसाल फ़स्ल-ए-गुल में वो फिर चाक हो गए
क्यूँ-कर न लाए रंग गुलिस्ताँ नए नए
दिल-लगी ग़ैरों से बे-जा है मिरी जाँ छोड़ दे
मुँह न ढाँको अब तो सूरत देख ली
तोहमत-ए-हसरत-ए-पर्वाज़ न मुझ पर बाँधे
ख़ाक छनवाती है दीवानों से अपने मुद्दतों
दिल किस से लगाऊँ कहीं दिलबर नहीं मिलता
ख़ामोश दाब-ए-इश्क़ को बुलबुल लिए हुए
लाला-रूयों से कब फ़राग़ रहा