खुली है कुंज-ए-क़फ़स में मिरी ज़बाँ सय्याद
मैं माजरा-ए-चमन क्या करूँ बयाँ सय्याद
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नीस्त बे-यार मुझ को हस्ती है
ज़माने में वो मह-लक़ा एक है
सातों फ़लक किए तह-ओ-बाला निकल गया
चढ़ी तेरे बीमार-ए-फ़ुर्क़त को तब है
वादे पे तुम न आए तो कुछ हम न मर गए
परों को खोल दे ज़ालिम जो बंद करता है
मुँह न ढाँको अब तो सूरत देख ली
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
दीद-ए-लैला के लिए दीदा-ए-मजनूँ है ज़रूर
ज़ुल्फ़ों की तरह उम्र बसर हो गई अपनी
लाएगी गर्दिश में तुझ को भी मिरी आवारगी
रक्खो ख़िदमत में मुझ से काम तो लो