वादे पे तुम न आए तो कुछ हम न मर गए
कहने को बात रह गई और दिन गुज़र गए
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रक्खो ख़िदमत में मुझ से काम तो लो
साइलाना उन के दर पर जब मिरा जाना हुआ
क्या मिला अर्ज़-ए-मुद्दआ कर के
ज़माने में वो मह-लक़ा एक है
अगरी का है गुमाँ शक है मलागीरी का
फेर लाता है ख़त-ए-शौक़ मिरा हो के तबाह
मुझ बला-नोश को तलछट भी है काफ़ी साक़ी
आफ़त शब-ए-तन्हाई की टल जाए तो अच्छा
तबीअ'त को होगा क़लक़ चंद रोज़
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
दिल-लगी ग़ैरों से बे-जा है मिरी जाँ छोड़ दे
दीद-ए-गुलज़ार-ए-जहाँ क्यूँ न करें सैर तो है