ज़ुल्फ़ों की तरह उम्र बसर हो गई अपनी
हम ख़ाना-ब-दोशों को कहीं घर नहीं मिलता
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रास्ता रोक के कह लूँगा जो कहना है मुझे
मय पिला ऐसी कि साक़ी न रहे होश मुझे
करीम जो मुझे देता है बाँट खाता हूँ
दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी
दिल किस से लगाऊँ कहीं दिलबर नहीं मिलता
नहीं क़ौल से फ़ेल तेरे मुताबिक़
हों वो काफ़िर कि मुसलामानों ने अक्सर मुझ को
आफ़त शब-ए-तन्हाई की टल जाए तो अच्छा
दीद-ए-लैला के लिए दीदा-ए-मजनूँ है ज़रूर
लैला मजनूँ का रटती है नाम
था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी
क़ब्र पर होवें दो न चार दरख़्त