लैला मजनूँ का रटती है नाम
दीवानी हुई है बक रही है
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हिज्र की शब हाथ में ले कर चराग़-ए-माहताब
काबे को जाता किस लिए हिन्दोस्तान से मैं
ऐ शब-ए-फ़ुर्क़त न कर मुझ पर अज़ाब
फेर लाता है ख़त-ए-शौक़ मिरा हो के तबाह
अल्लाह के भी घर से है कू-ए-बुताँ अज़ीज़
जलन दिल की लिक्खें जो हम दिल-जले
सातों फ़लक किए तह-ओ-बाला निकल गया
रुतबा-ए-कुफ़्र है किस बात में कम ईमाँ से
मुझे दे के दिल जान खोना पड़ा है
पास-ए-दीं कुफ़्र में भी था मलहूज़
हम जो कहते हैं सरासर है ग़लत
बरहना देख कर आशिक़ में जान-ए-ताज़ा आती है