बरहना देख कर आशिक़ में जान-ए-ताज़ा आती है
सरापा रूह का आलम है तेरे जिस्म-ए-उर्यां में
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दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी
टूटे बुत मस्जिद बनी मिस्मार बुत-ख़ाना हुआ
इश्क़ कुछ आप पे मौक़ूफ़ नहीं ख़ुश रहिए
खुली है कुंज-ए-क़फ़स में मिरी ज़बाँ सय्याद
रिंदान-ए-इश्क़ छुट गए मज़हब की क़ैद से
तौबा का पास रिंद-ए-मय-आशाम हो चुका
जलन दिल की लिक्खें जो हम दिल-जले
ज़ुल्फ़ों की तरह उम्र बसर हो गई अपनी
वादे पे तुम न आए तो कुछ हम न मर गए
वक़ार-ए-शाह-ए-ज़विल-इक्तदार देख चुके
अदू ग़ैर ने तुझ को दिलबर बनाया
चलती रही उस कूचे में तलवार हमेशा