इश्क़ कुछ आप पे मौक़ूफ़ नहीं ख़ुश रहिए
एक से एक ज़माने में तरहदार बहुत
Rahat Indori
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Gulzar
Wasi Shah
Habib Jalib
Jaun Eliya
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लाला-रूयों से कब फ़राग़ रहा
हूर पर आँख न डाले कभी शैदा तेरा
आफ़त शब-ए-तन्हाई की टल जाए तो अच्छा
दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी
ख़ामोश दाब-ए-इश्क़ को बुलबुल लिए हुए
सातों फ़लक किए तह-ओ-बाला निकल गया
न अंगिया न कुर्ती है जानी तुम्हारी
मुज़्दा-बाद ऐ बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका
मय पिला ऐसी कि साक़ी न रहे होश मुझे
छुप के घर ग़ैर के जाया न करो
आ अंदलीब मिल के करें आह-ओ-ज़ारियाँ
करीम जो मुझे देता है बाँट खाता हूँ