मुज़्दा-बाद ऐ बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका
मदरसे खोदे गए तामीर मय-ख़ाना हुआ
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इश्क़ कुछ आप पे मौक़ूफ़ नहीं ख़ुश रहिए
हिज्र की शब हाथ में ले कर चराग़-ए-माहताब
परों को खोल दे ज़ालिम जो बंद करता है
हों वो काफ़िर कि मुसलामानों ने अक्सर मुझ को
दिल-लगी ग़ैरों से बे-जा है मिरी जाँ छोड़ दे
ज़ुल्फ़ों की तरह उम्र बसर हो गई अपनी
छुप के घर ग़ैर के जाया न करो
सदमे गुज़रे ईज़ा गुज़री
बस अब आप तशरीफ़ ले जाइए
रास्ता रोक के कह लूँगा जो कहना है मुझे
वादे पे तुम न आए तो कुछ हम न मर गए
तबीअ'त को होगा क़लक़ चंद रोज़