परों को खोल दे ज़ालिम जो बंद करता है
क़फ़स को ले के मैं उड़ जाऊँगा कहाँ सय्याद
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शौक़-ए-नज़्ज़ारा-ए-दीदार में तेरे हमदम
रिंदान-ए-इश्क़ छुट गए मज़हब की क़ैद से
अदू ग़ैर ने तुझ को दिलबर बनाया
बस अब आप तशरीफ़ ले जाइए
हूर पर आँख न डाले कभी शैदा तेरा
साइलाना उन के दर पर जब मिरा जाना हुआ
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
बरहना देख कर आशिक़ में जान-ए-ताज़ा आती है
मुझ बला-नोश को तलछट भी है काफ़ी साक़ी
चाँदनी रातों में चिल्लाता फिरा
क़ब्र पर होवें दो न चार दरख़्त
आज इंकार न फ़रमाइए आप