पाँव के हाथ से गर्दिश ही रही मुझ को मुदाम
चाक की तरह से किस रोज़ मिरा सर न फिरा
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जलन दिल की लिक्खें जो हम दिल-जले
मुँह न ढाँको अब तो सूरत देख ली
क़ैस समझा मिरी लैला की सवारी आई
ज़माने में वो मह-लक़ा एक है
हम जो कहते हैं सरासर है ग़लत
न अंगिया न कुर्ती है जानी तुम्हारी
लाला-रूयों से कब फ़राग़ रहा
था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी
सदमे गुज़रे ईज़ा गुज़री
आ अंदलीब मिल के करें आह-ओ-ज़ारियाँ
इश्क़ कुछ आप पे मौक़ूफ़ नहीं ख़ुश रहिए
तौबा का पास रिंद-ए-मय-आशाम हो चुका