क़ैस समझा मिरी लैला की सवारी आई
दूर से जब कोई सहरा में बगूला उट्ठा
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मुझे दे के दिल जान खोना पड़ा है
नीस्त बे-यार मुझ को हस्ती है
काफ़िर हूँ न फूँकूँ जो तिरे काबे में ऐ शैख़
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
चाँदनी रातों में चिल्लाता फिरा
दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी
आज इंकार न फ़रमाइए आप
अपने मरने का अगर रंज मुझे है तो ये है
करीम जो मुझे देता है बाँट खाता हूँ
नाज़-ए-बेजा उठाइए किस से
पास-ए-दीं कुफ़्र में भी था मलहूज़
तू आप को पोशीदा ओ इख़्फ़ा न समझना