काफ़िर हूँ न फूँकूँ जो तिरे काबे में ऐ शैख़
नाक़ूस बग़ल में है मुसल्ला न समझना
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मय-कश हूँ वो कि पूछता हूँ उठ के हश्र में
चढ़ी तेरे बीमार-ए-फ़ुर्क़त को तब है
ऐ जुनूँ तू ही छुड़ाए तो छुटूँ इस क़ैद से
बस अब आप तशरीफ़ ले जाइए
लैला मजनूँ का रटती है नाम
मुज़्दा-बाद ऐ बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका
क्या सुन चुके हैं आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार हाथ
अदू ग़ैर ने तुझ को दिलबर बनाया
आफ़त शब-ए-तन्हाई की टल जाए तो अच्छा
पाँव के हाथ से गर्दिश ही रही मुझ को मुदाम
आदमी पहचाना जाता है क़याफ़ा देख कर
तौबा का पास रिंद-ए-मय-आशाम हो चुका