आदमी पहचाना जाता है क़याफ़ा देख कर
ख़त का मज़मूँ भाँप लेते हैं लिफ़ाफ़ा देख कर
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था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी
आलम-पसंद हो गई जो बात तुम ने की
ज़माने में वो मह-लक़ा एक है
काबे को जाता किस लिए हिन्दोस्तान से मैं
दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी
लाला-रूयों से कब फ़राग़ रहा
फेर लाता है ख़त-ए-शौक़ मिरा हो के तबाह
बुत करें आरज़ू ख़ुदाई की
चलती रही उस कूचे में तलवार हमेशा
आज इंकार न फ़रमाइए आप
ऐ परी हुस्न तिरा रौनक़-ए-हिंदुस्ताँ है