आलम-पसंद हो गई जो बात तुम ने की
जो चाल तुम चले वो ज़माने में चल गई
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मुज़्दा-बाद ऐ बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका
नहीं क़ौल से फ़ेल तेरे मुताबिक़
काफ़िर हूँ न फूँकूँ जो तिरे काबे में ऐ शैख़
हैं ये सारे जीते-जी के वास्ते
चढ़ी तेरे बीमार-ए-फ़ुर्क़त को तब है
नाज़-ए-बेजा उठाइए किस से
फिर वही कुंज-ए-क़फ़स है वही सय्याद का घर
छुप के घर ग़ैर के जाया न करो
मौत आ जाए क़ैद में सय्याद
शौक़-ए-नज़्ज़ारा-ए-दीदार में तेरे हमदम
मुँह न ढाँको अब तो सूरत देख ली
दिल किस से लगाऊँ कहीं दिलबर नहीं मिलता