मौत आ जाए क़ैद में सय्याद
आरज़ू हो अगर रिहाई की
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बरहना देख कर आशिक़ में जान-ए-ताज़ा आती है
दीद-ए-गुलज़ार-ए-जहाँ क्यूँ न करें सैर तो है
क्यूँ-कर न लाए रंग गुलिस्ताँ नए नए
मय पिला ऐसी कि साक़ी न रहे होश मुझे
रास्ता रोक के कह लूँगा जो कहना है मुझे
अगरी का है गुमाँ शक है मलागीरी का
ऐ जुनूँ तू ही छुड़ाए तो छुटूँ इस क़ैद से
फिर वही कुंज-ए-क़फ़स है वही सय्याद का घर
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
मुझे दे के दिल जान खोना पड़ा है
हों वो काफ़िर कि मुसलामानों ने अक्सर मुझ को
क़ैस समझा मिरी लैला की सवारी आई