मज़ा पड़ा है क़नाअत का अहद-ए-तिफ़्ली से
मैं सेर हो के न पीता था शीर-ए-मादर को
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फिर वही कुंज-ए-क़फ़स है वही सय्याद का घर
अपने मरने का अगर रंज मुझे है तो ये है
दीद-ए-लैला के लिए दीदा-ए-मजनूँ है ज़रूर
नाज़-ए-बेजा उठाइए किस से
इमसाल फ़स्ल-ए-गुल में वो फिर चाक हो गए
लैला मजनूँ का रटती है नाम
ऐ शब-ए-फ़ुर्क़त न कर मुझ पर अज़ाब
ख़ाक छनवाती है दीवानों से अपने मुद्दतों
छुप के घर ग़ैर के जाया न करो
जलन दिल की लिक्खें जो हम दिल-जले
रक्खो ख़िदमत में मुझ से काम तो लो
ज़ुल्फ़ें छोड़ीं हैं कि जोड़ा उस ने छोड़ा साँप का