ख़ाक छनवाती है दीवानों से अपने मुद्दतों
वो परी जब तक न कर ले दर-ब-दर मिलती नहीं
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अपने मरने का अगर रंज मुझे है तो ये है
नीस्त बे-यार मुझ को हस्ती है
बरहना देख कर आशिक़ में जान-ए-ताज़ा आती है
अदू ग़ैर ने तुझ को दिलबर बनाया
साइलाना उन के दर पर जब मिरा जाना हुआ
सदमे गुज़रे ईज़ा गुज़री
पाँव के हाथ से गर्दिश ही रही मुझ को मुदाम
खुली है कुंज-ए-क़फ़स में मिरी ज़बाँ सय्याद
किसी का कोई मर जाए हमारे घर में मातम है
रिंदान-ए-इश्क़ छुट गए मज़हब की क़ैद से
लाएगी गर्दिश में तुझ को भी मिरी आवारगी
न अंगिया न कुर्ती है जानी तुम्हारी