किसी का कोई मर जाए हमारे घर में मातम है
ग़रज़ बारह महीने तीस दिन हम को मोहर्रम है
Faiz Ahmad Faiz
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ख़ामोश दाब-ए-इश्क़ को बुलबुल लिए हुए
चढ़ी तेरे बीमार-ए-फ़ुर्क़त को तब है
पाँव के हाथ से गर्दिश ही रही मुझ को मुदाम
अल्लाह के भी घर से है कू-ए-बुताँ अज़ीज़
मुज़्दा-बाद ऐ बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका
बुत करें आरज़ू ख़ुदाई की
वादे पे तुम न आए तो कुछ हम न मर गए
दीद-ए-गुलज़ार-ए-जहाँ क्यूँ न करें सैर तो है
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
लाएगी गर्दिश में तुझ को भी मिरी आवारगी
रास्ता रोक के कह लूँगा जो कहना है मुझे
रुतबा-ए-कुफ़्र है किस बात में कम ईमाँ से