ऐ शब-ए-फ़ुर्क़त न कर मुझ पर अज़ाब
मैं ने तेरा मुँह नहीं काला किया
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वादे पे तुम न आए तो कुछ हम न मर गए
तबीअ'त को होगा क़लक़ चंद रोज़
नीस्त बे-यार मुझ को हस्ती है
सातों फ़लक किए तह-ओ-बाला निकल गया
क़ैस समझा मिरी लैला की सवारी आई
हैं ये सारे जीते-जी के वास्ते
ज़माने में वो मह-लक़ा एक है
पास-ए-दीं कुफ़्र में भी था मलहूज़
खुली है कुंज-ए-क़फ़स में मिरी ज़बाँ सय्याद
तू आप को पोशीदा ओ इख़्फ़ा न समझना
मौत आ जाए क़ैद में सय्याद