हों वो काफ़िर कि मुसलामानों ने अक्सर मुझ को
फूँकते काबे में नाक़ूस कलीसा देखा
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तौबा का पास रिंद-ए-मय-आशाम हो चुका
मुज़्दा-बाद ऐ बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका
गले लगाएँ बलाएँ लें तुम को प्यार करें
क्या मिला अर्ज़-ए-मुद्दआ कर के
ऐ जुनूँ तू ही छुड़ाए तो छुटूँ इस क़ैद से
मय पिला ऐसी कि साक़ी न रहे होश मुझे
मज़ा पड़ा है क़नाअत का अहद-ए-तिफ़्ली से
था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी
हूर पर आँख न डाले कभी शैदा तेरा
रक्खो ख़िदमत में मुझ से काम तो लो
आलम-पसंद हो गई जो बात तुम ने की
क़ैस समझा मिरी लैला की सवारी आई