दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी
क्या अब के बरस चाक गरेबाँ न करेंगे
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मज़ा पड़ा है क़नाअत का अहद-ए-तिफ़्ली से
इक परी का फिर मुझे शैदा किया
ज़ुल्फ़ें छोड़ीं हैं कि जोड़ा उस ने छोड़ा साँप का
हैं ये सारे जीते-जी के वास्ते
किसी का कोई मर जाए हमारे घर में मातम है
क्यूँ-कर न लाए रंग गुलिस्ताँ नए नए
अगरी का है गुमाँ शक है मलागीरी का
दीद-ए-लैला के लिए दीदा-ए-मजनूँ है ज़रूर
अदू ग़ैर ने तुझ को दिलबर बनाया
ख़ामोश दाब-ए-इश्क़ को बुलबुल लिए हुए
काफ़िर हूँ न फूँकूँ जो तिरे काबे में ऐ शैख़
अपने मरने का अगर रंज मुझे है तो ये है