टूटे बुत मस्जिद बनी मिस्मार बुत-ख़ाना हुआ
जब तो इक सूरत भी थी अब साफ़ वीराना हुआ
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उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
पास-ए-दीं कुफ़्र में भी था मलहूज़
मुँह न ढाँको अब तो सूरत देख ली
बस अब आप तशरीफ़ ले जाइए
आलम-पसंद हो गई जो बात तुम ने की
न अंगिया न कुर्ती है जानी तुम्हारी
मय-कश हूँ वो कि पूछता हूँ उठ के हश्र में
चलती रही उस कूचे में तलवार हमेशा
सातों फ़लक किए तह-ओ-बाला निकल गया
परों को खोल दे ज़ालिम जो बंद करता है
अपने मरने का अगर रंज मुझे है तो ये है
अल्लाह के भी घर से है कू-ए-बुताँ अज़ीज़