किनारे Poetry (page 2)

तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है

ज़फ़र इक़बाल

सिर्फ़ आँखें थीं अभी उन में इशारे नहीं थे

ज़फ़र इक़बाल

पैदा ये ग़ुबार क्यूँ हुआ है

ज़फ़र इक़बाल

नहीं कि तेरे इशारे नहीं समझता हूँ

ज़फ़र इक़बाल

लहर की तरह किनारे से उछल जाना है

ज़फ़र इक़बाल

कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है

ज़फ़र इक़बाल

आ के जब ख़्वाब तुम्हारे ने कहा बिस्मिल्लाह

ज़फ़र अज्मी

सूरज के साथ साथ उभारे गए हैं हम

यज़दानी जालंधरी

इतने आसूदा किनारे नहीं अच्छे लगते

यासमीन हमीद

आते रहते हैं फ़लक से भी इशारे कुछ न कुछ

यासमीन हबीब

आशिक़ी के आश्कारे हो चुके

यासीन अली ख़ाँ मरकज़

दोनों चश्मों से मरी अश्क बहा करते हैं

वज़ीर अली सबा लखनवी

अश्क-उफ़्तादा नज़र आते हैं सारे दरिया

वज़ीर अली सबा लखनवी

टीन का डिब्बा

वज़ीर आग़ा

मैं और तू

वज़ीर आग़ा

सहर ने आ कर मुझे सुलाया तो मैं ने जाना

वज़ीर आग़ा

बेबसी

वसीम बरेलवी

जहाँ दरिया कहीं अपने किनारे छोड़ देता है

वसीम बरेलवी

पेश वो हर पल है साहब

वक़ार सहर

नक़ीब-ए-बख़्त सारे सो चुके हैं

वक़ार सहर

मन की मय हो तो पियाले नहीं देखे जाते

वक़ार ख़ान

जो सोचते रहे वो कर गुज़रना चाहते हैं

वक़ार फ़ातमी

सुर्ख़ दामन में शफ़क़ के कोई तारा तो नहीं

वामिक़ जौनपुरी

पहले सफ़-ए-उश्शाक़ में मेरा ही लहू चाट

वलीउल्लाह मुहिब

पचासी साल नीचे गिर गए

वहीद अहमद

एक आदमी

वहाब दानिश

काशी

वर्षा गोरछिया

कान्हा

वर्षा गोरछिया

आग़ाज़

वर्षा गोरछिया

ग़ज़ल का सिलसिला था याद होगा

तुफ़ैल चतुर्वेदी

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